2009 के अर्धसैनिक बल बीडीआर विद्रोह की फिर से जांच करेगी अंतरिम सरकार, जानें कैसे उपजा था बवाल
बांग्लादेश की अंतरिम सरकार ने सोमवार को कहा कि वह 2009 में अर्धसैनिक बल बांग्लादेश राइफल्स (बीडीआर) में हुए विद्रोह की जल्द ही फिर से जांच और निष्पक्ष सुनवाई शुरू करेगी, जिसमें सेवारत 57 सैन्य अधिकारियों समेत 74 लोग मारे गए थे। अंतरिम सरकार के गृह और कृषि मामलों के सलाहकार लेफ्टिनेंट जनरल (सेवानिवृत्त) एम जहांगीर आलम चौधरी ने कहा कि एक नागरिक और सेना के पूर्व सदस्य के रूप में, वह इस दुखद घटना के लिए न्याय सुनिश्चित करने के लिए प्रतिबद्ध हैं। उन्होंने कहा, बीडीआर नरसंहार की उचित फिर से जांच और निष्पक्ष सुनवाई प्रक्रिया जल्द ही शुरू होगी।
क्या है 2009 का अर्धसैनिक बल बीडीआर विद्रोह?
ये विद्रोह 25-26 फरवरी, 2009 को शुरू हुआ था, जब सेना के अधिकारियों ने बीडीआर जवानों की मांगों को पूरा करने से इनकार कर दिया था। जिसके बाद विद्रोही सैनिकों ने ढाका में बीडीआर के पिलखाना मुख्यालय में विद्रोह किया और यह जल्दी ही पूरे देश में सीमांत बल के सेक्टर मुख्यालयों और क्षेत्रीय इकाइयों में फैल गया। इस विद्रोह में अर्धसैनिक सैनिकों ने अपने कमांडरों को अपनी बंदूकें तान दीं, उन्हें नजदीक से गोली मार दी या उन्हें काटकर मार डाला, उनके शवों को सीवर में छिपा दिया और जल्दबाजी में कब्र खोद दी और उनके भयभीत परिवार के सदस्यों को बैरकों में बंधक बनाकर अपमानित किया। विद्रोह में 57 सैन्य अधिकारियों समेत 74 लोग मारे गए।
बीडीआर विद्रोह के बाद बदला बांग्लादेशी सेना का नाम
इसके बाद देश में एक बड़े पैमाने पर पुनर्निर्माण अभियान के तहत, बांग्लादेश की तत्कालीन सरकार ने विद्रोह से दागी बीडीआर का नाम बदलकर 2012 में बॉर्डर गार्ड बांग्लादेश (बीजीबी) कर दिया, जबकि बल को विद्रोह के कलंक से मुक्त करने के लिए इसका लोगो, वर्दी, झंडा और मोनोग्राम बदल दिया।
वहीं मामले में जहांगीर आलम चौधरी, जो पहले (बीजीबी) प्रमुख के रूप में कार्य कर चुके हैं, ने कहा, न केवल एक सलाहकार के रूप में बल्कि सेना के पूर्व सदस्य और एक सामान्य नागरिक के रूप में, मैं बीडीआर हत्याओं की न्यायपूर्ण सुनवाई भी चाहता हूं। उनकी टिप्पणी तब आई जब विशेष रूप से सोशल मीडिया पर फिर से जांच की मांग बढ़ गई, हालांकि 2017 में एक विशेष तीन-न्यायाधीश उच्च न्यायालय की पीठ ने निचली अदालत में उनके मुकदमे के बाद 139 बीडीआर सैनिकों की मौत की सजा को बरकरार रखा था।